आशाओं का आलिंगन
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कभी कभी निष्फल हो जाता आशाओं के अवलंबन में,
बैठी रहती मैं निशिदिन एक ज्योति के आलिंगन में।
सपनों की कश्ती डगमगाती धाराओं के संग बह जाती,
मन की वेदना सह न पाती दुख की लहरों में डूब जाती।
चुपचाप खड़ी मैं समय के संग खोज रही जीवन का रंग,
पर हर पल छूटता जैसे मृगतृष्णा का कोई प्रसंग।
फिर भी न मैं हार मानती उम्मीदों का थामे दामन,
हर अंधेरे में खोजती वह स्वर्णिम रश्मि का अमृत-क्षण।
आशाएँ फिर से जगती हैं मन में नव संकल्प बनता,
संघर्षों से घिरा जीवन अंत में विजयी बनता।
प्रतिमा पाठक
दिल्ली

